Bharat ki Badalte Videsh Niti: Russia, America aur China ke Beech Balance
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किसी भी राष्ट्र के राष्ट्रीय हित परिवर्तनशील हो सकते हैं और स्वाभाविक रूप से इसका प्रभाव उसकी विदेश नीति पर भी दिखता है। भारत और रूस के बीच कूटनीतिक और रणनीतिक संबंधों की प्रतिबद्धता का एक स्वर्णिम इतिहास रहा है। यूक्रेन, जो रूस का कट्टर प्रतिद्वंद्वी देश है, वहां भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा को संतुलन की संभावनाओं से जोड़ा गया है, जबकि भारत की कूटनीति फिलिस्तीन-इजराइल विवाद में एक कदम आगे दिखी। वास्तव में, रूस-यूक्रेन संघर्ष और पश्चिम एशिया के संदर्भ में भारतीय विदेश नीति के बदलते दृष्टिकोण का भारतीय हितों की दृष्टि से दूरगामी प्रभाव हो सकता है।
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अंतरराष्ट्रीय राजनीति के यथार्थवादी सिद्धांत के अनुसार, किसी भी संप्रभु राष्ट्र के लिए शक्ति, राष्ट्रीय हित और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अवधारणाएं शक्ति संतुलन के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण होती हैं। इसका संचालन सावधानीपूर्वक करना राष्ट्र की जिम्मेदारी होती है। भारत ने रूस के साथ-साथ अमेरिका के साथ भी रणनीतिक सहयोग बढ़ाया है, जो कि अभूतपूर्व है।
भू-रणनीतिक दृष्टिकोण से भारत को रूस और अमेरिका दोनों की जरूरत है और इसमें संतुलन बनाए रखना विदेश नीति के लिए एक वास्तविक चुनौती है। रूस-यूक्रेन संघर्ष में अमेरिका और यूरोप द्वारा यूक्रेन को आर्थिक और रणनीतिक मदद दी जा रही है, जिससे पुतिन काफी नाराज हैं और पूर्वी यूरोप में तनाव अपने चरम पर पहुंच गया है।
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प्रधानमंत्री मोदी और यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेन्स्की के बीच द्विपक्षीय बैठक के दौरान, ज़ेलेन्स्की ने रूस की कड़ी आलोचना की और उम्मीद जताई कि भारत भविष्य में वैश्विक मंचों पर रूस का विरोध करेगा। वहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने रूस और यूक्रेन के बीच बातचीत, संवाद और कूटनीति के माध्यम से समस्या के समाधान की आवश्यकता पर जोर देते हुए शांति के हर प्रयास में भारत की सक्रिय भूमिका का आश्वासन दिया।
यूरोप और अमेरिका भी प्रधानमंत्री मोदी की यूक्रेन यात्रा पर नजर रख रहे थे। इससे पहले, दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री की रूस यात्रा को यूरोप और अमेरिका में संदेह की दृष्टि से देखा गया था, इसलिए अब मोदी की यूक्रेन यात्रा को भी भारत की संतुलनकारी कूटनीति के रूप में व्याख्यायित किया गया है।
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रूस के साथ भारत की दोस्ती को विदेश संबंधों की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। भारत-रूस संबंधों को चीन पर दबाव बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण माना गया था, लेकिन अब स्थिति बदल गई है। पिछले दो वर्षों से रूस यूक्रेन से लड़ रहा है। इस बीच, चीन रूस के लिए एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में उभरा है।
पांचवीं बार राष्ट्रपति पद संभालने के बाद पुतिन ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए चीन को चुना। चीन और रूस की बढ़ती भागीदारी अमेरिका के साथ उनकी रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता से प्रेरित है।
प्रतिबंधों से घिरे रूस के लिए चीन एक मददगार के रूप में उभरा है और पश्चिमी प्रतिबंधों के बावजूद इन दोनों देशों के बीच आर्थिक और रणनीतिक संबंध और भी मजबूत हो गए हैं।
अमेरिका और यूरोपीय संघ के भारी प्रतिबंधों का सामना कर रहे रूस के साथ चीन व्यापार जारी रखे हुए है। चीन और रूस अंतरराष्ट्रीय संस्थानों के भीतर और बाहर अमेरिकी नेतृत्व वाले विश्व व्यवस्था के मानदंडों को चुनौती देने के लिए भी समन्वय करते हैं।
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वहीं, भारत और चीन के बीच सीमा पर गहरा तनाव है और चीन अंतरराष्ट्रीय सीमा रेखा का लगातार उल्लंघन करता आ रहा है। चीन और पाकिस्तान के बीच बन रहा आर्थिक गलियारा भारतीय क्षेत्र से होकर गुजरता है और भारत ने इस पर कड़ा विरोध जताया है। चीन पर दबाव बढ़ाने के लिए भारत को रूस के साथ मजबूत संबंधों की जरूरत रही है।
चीन और रूस के बीच मजबूत संबंधों के बावजूद, भारत को यह समझना होगा कि ये दोनों देश औपचारिक सहयोगी नहीं हैं और ऐतिहासिक रूप से एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी रहे हैं।
awरूसी व्यापारियों को रूस में चीनी कंपनियों के बढ़ते प्रभाव को लेकर आशंकाएं हैं। दरअसल, मॉस्को और बीजिंग के बीच संबंध अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती देने की इच्छा से प्रेरित हैं।
पुतिन और जिनपिंग लंबे समय से सत्ता में बने हुए हैं, अगर इस स्थिति में कोई बदलाव आता है तो अमेरिका के साथ संबंधों को लेकर परिस्थितियां बदल सकती हैं।
अमेरिका एशिया, अफ्रीका और यूरोप में शक्ति संतुलन बनाए रखना चाहता है। पिछले डेढ़ दशक में अमेरिका ने अपनी एशिया-केंद्रित विदेश नीति को मजबूत किया है और भारत उसकी आशाओं और रणनीति का मुख्य केंद्र है।
ओबामा और ट्रंप के बाद बाइडेन ने भी बेहतर समझा है कि अमेरिका के वैश्विक प्रभाव को बनाए रखने के लिए चीन, रूस और ईरान जैसे देशों के प्रभाव को किसी भी कीमत पर सीमित करना होगा। इसी कारण वे संतुलनकारी साझेदारी को बढ़ावा दे रहे हैं ताकि अमेरिका के रणनीतिक और राजनीतिक हितों की रक्षा की जा सके।
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अब न केवल भारत और अमेरिका के बीच रणनीतिक सहयोग मजबूत हो रहा है, बल्कि दोनों देश रक्षा औद्योगिक सहयोग के रोडमैप पर भी लगातार आगे बढ़ रहे हैं। हाल ही में भारत और अमेरिका ने एक नए रक्षा समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं।
यह समझौता दोनों देशों को रक्षा उपकरणों और पुर्जों की आपूर्ति में मदद करेगा ताकि एक-दूसरे की जरूरतों को पूरा किया जा सके। इस तरह के रक्षा समझौते पहले केवल भारत और रूस के बीच ही हुए हैं।
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अमेरिका को लगता है कि चीन पर नियंत्रण रखने के लिए एशिया को कूटनीति के केंद्र में रखना होगा और बराक ओबामा और ट्रंप के बाद अब बाइडेन भी इस नीति पर आगे बढ़ रहे हैं। अमेरिका रणनीतिक साझेदारी के साथ आर्थिक और व्यापारिक नीतियों पर भी आगे बढ़ना चाहता है।
यही कारण है कि क्वाड के बाद अब अमेरिका ने हिंद-प्रशांत आर्थिक ढांचे की रणनीति पर आगे बढ़ने की बात की है जिसमें व्यापारिक सुविधाओं के साथ आपसी सहयोग को बढ़ाना है।
ओबामा ने भी एशिया में अपने विश्वसनीय सहयोगियों के साथ-साथ उन देशों को जोड़ने की नीति पर काम किया था जो चीन की विस्तारवादी नीति और अवैध दावों से परेशान हैं। इन देशों में भारत समेत इंडोनेशिया, ताइवान, मलेशिया, म्यांमार, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, लाओस और वियतनाम जैसे देश शामिल हैं।
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इनमें से कुछ देश दक्षिण चीन सागर पर चीन के अवैध दावों को चुनौती देना चाहते हैं और कुछ देश चीन की भू-सीमा विस्तार की घटनाओं और सैन्य दबाव से परेशान हैं। क्वाड चीन को रोकने के लिए एक मजबूत रणनीतिक साझेदारी के रूप में उभरा है। चीन क्वाड के प्रति सख्त रहा है और इसे एशियाई नाटो कहता रहा है। रूस ने भी क्वाड की आलोचना की है, लेकिन वह भारत की रणनीतिक चुनौतियों से अवगत है।
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यह देखा गया है कि सभी विरोधाभासों के बावजूद, रूस को भारत और अमेरिका के मजबूत संबंधों से कोई आशंका नहीं है और इस देश के साथ भारत की भागीदारी लगातार बढ़ती जा रही है। रणनीतिक साझेदारी के तहत राजनीतिक और आधिकारिक दोनों स्तरों पर नियमित संवाद और सहयोग गतिविधियों की फॉलो-अप सुनिश्चित करने के लिए कई संस्थागत संवाद तंत्र संचालित होते हैं। भारत और रूस कई बहुपक्षीय मंचों जैसे संयुक्त राष्ट्र, G-20, ब्रिक्स और एससीओ पर निकटता से सहयोग करते हैं।
रक्षा के क्षेत्र में भारत का रूस के साथ दीर्घकालिक और व्यापक सहयोग है। भारत की स्वतंत्रता के बाद से विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने भारत-रूस साझेदारी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास में रूस के अभूतपूर्व योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय संबंध सात दशकों से अधिक समय से मजबूत और स्थिर बने हुए हैं। भारत-रूस साझेदारी समकालीन युग के विश्व की प्रमुख साझेदारियों में से एक रही है, जिसका साझा संकल्प एक बहुध्रुवीय विश्व के प्रति रहा है और इसका विस्तार पारंपरिक सैन्य, परमाणु और अंतरिक्ष सहयोग से परे लगातार जारी है।
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दूसरी ओर, भारत और यूक्रेन के बीच संबंधों की श्रृंखला 1990 के दशक में शुरू हुई। 1998 में, भारत ने ऑपरेशन शक्ति के तहत परमाणु परीक्षण किए। यूक्रेन ने 25 अन्य देशों के साथ मिलकर भारत के इस कदम का विरोध किया। जबकि रूस पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों को लेकर सतर्क रहा है, यूक्रेन और पाकिस्तान के बीच हथियार सौदों का एक लंबा इतिहास रहा है। यूक्रेन पाकिस्तान को बड़ी मात्रा में हथियारों की आपूर्ति करता है।
यूक्रेन ने कई बार वैश्विक मंचों पर कश्मीर पर पाकिस्तान के विचार का समर्थन भी किया है। इस प्रकार, रूस और अमेरिका के साथ द्विपक्षीय संबंध भारत की विदेश नीति के संतुलन में महत्वपूर्ण हैं, लेकिन भारत के बहुपक्षीय संबंधों को बढ़ाने के प्रयास आपसी संबंधों में जटिलताएं पैदा कर सकते हैं।
वहीं, पश्चिम एशिया में भारत के आर्थिक और रणनीतिक हित चुनौतीपूर्ण रहे हैं। इजराइल भारत का रणनीतिक साझेदार है, जबकि अन्य खाड़ी देश भारत की आर्थिक जरूरतों के लिए अपरिहार्य हैं।
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रूस-यूक्रेन संघर्ष और इजराइल-फिलिस्तीन विवाद महाशक्तियों की भयंकर रणनीतिक प्रतिद्वंद्विता से प्रेरित हैं, ऐसे में भारत के लिए यह सबसे अच्छा होगा कि वह अपने राष्ट्रीय हितों के अनुरूप संतुलित द्विपक्षीय संबंधों पर आधारित रणनीति पर आगे बढ़ता रहे।
एक शक्ति संतुलनकारी राष्ट्र वह होता है जिसके पास इतनी शक्ति हो कि जिस भी पक्ष का वह समर्थन करे, वह पक्ष अधिक शक्तिशाली हो जाए। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और वैश्विक महाशक्तियां भारत को अपने पक्ष में खड़ा करने का प्रयास करती रहती हैं।
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