Information Technology Act|यौन शोषण से संबंधित सामग्री अपराध 2024

Information Technology Act|यौन शोषण से संबंधित सामग्री अपराध 2024
Information Technology Act

Information Technology Act.सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि बच्चों से संबंधित अश्लील सामग्री को देखना, डाउनलोड करना, संग्रहीत करना, रखना, वितरित करना या प्रदर्शित करना ‘पॉक्सो अधिनियम’ (Protection of Children from Sexual Offences Act) और ‘सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम’ (Information Technology Act) के तहत गंभीर आपराधिक अपराध की श्रेणी में आता है।

इस फैसले का आधार ‘जस्ट राइट फॉर चिल्ड्रन एलायंस’ (Just Right for Children Alliance) नामक गैर-सरकारी संगठन द्वारा दायर एक अपील थी, जिसने मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती दी थी।

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Information Technology Act|यौन शोषण से संबंधित सामग्री अपराध 2024

उच्च न्यायालय का पूर्व फैसला

मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने पूर्व फैसले में कहा था कि बच्चों से संबंधित अश्लील सामग्री को केवल देखना या संग्रहीत करना अपराध नहीं है। इसके अनुसार, यदि कोई व्यक्ति निजी तौर पर इस सामग्री को देखता है या रखता है तो यह अपराध की श्रेणी में नहीं आएगा, जब तक कि उसे वितरित या प्रसारित नहीं किया जाता।

यह निर्णय समाज में बड़े पैमाने पर बहस का विषय बन गया था, क्योंकि इसका सीधा मतलब यह था कि केवल देखने या भंडारण के आधार पर व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती।

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले को निरस्त कर दिया और कहा कि बच्चों से संबंधित अश्लील सामग्री रखना भी एक गंभीर अपराध है और इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

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सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच, जिसमें मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला, और एक अन्य न्यायाधीश शामिल थे, ने इस मामले पर गहन विचार-विमर्श किया। जस्टिस जे. बी. पारदीवाला ने 200 पन्नों का निर्णय लिखा, जिसे मुख्य न्यायाधीश ने ‘ऐतिहासिक’ करार दिया।

सुप्रीम कोर्ट का तर्क यह था कि किसी भी बच्चे का यौन शोषण केवल शारीरिक कृत्य तक सीमित नहीं होता। यह शोषण उसकी रिकॉर्डिंग और फिर उस रिकॉर्डिंग को साइबरस्पेस में प्रसारित करने से भी जारी रहता है। बच्चों के यौन शोषण की सामग्री को इंटरनेट पर उपलब्ध कराना पीड़ितों के लिए और अधिक मानसिक आघात उत्पन्न करता है।

न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा, “इस तथ्य को समझना आवश्यक है कि बच्चों के शोषण की सामग्री को देखने वाले व्यक्ति न केवल इस अश्लील सामग्री को बढ़ावा देते हैं बल्कि बच्चे के मानसिक और भावनात्मक आघात को और भी गहरा कर देते हैं। जिस बच्चे का यौन शोषण होता है, वह यह जानता है कि उसकी पीड़ा का वीडियो अनगिनत अजनबी देख सकते हैं, जो वर्षों बाद भी उसका मानसिक शोषण कर सकता है।”

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‘बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री’ शब्द की सिफारिश

सुप्रीम कोर्ट ने ‘पॉक्सो अधिनियम’ में सुधार के लिए संसद से अपील की कि ‘चाइल्ड पोर्नोग्राफी’ (Child Pornography) शब्द की जगह ‘बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री’ (Child Sexual Exploitative and Abuse Material – CSEAM) का उपयोग किया जाए।

अदालत ने कहा कि ‘चाइल्ड पोर्नोग्राफी’ शब्द वास्तविक अपराध और उसकी गंभीरता को पूरी तरह से नहीं दर्शाता। पारदीवाला ने लिखा, “प्रत्येक ऐसा मामला, जिसे पारंपरिक रूप से ‘चाइल्ड पोर्नोग्राफी’ कहा जाता है, वास्तव में एक बच्चे के शोषण और दुर्व्यवहार का मामला होता है।”

‘चाइल्ड पोर्नोग्राफी’ शब्द का उपयोग इस अपराध की गंभीरता को कम करता है और इसे ‘पोर्नोग्राफी’ के रूप में देखा जाता है, जो अक्सर वयस्कों के बीच सहमति से किया गया कृत्य माना जाता है।

यह शब्द अपराध की भयावहता को कमजोर करता है और पीड़ित बच्चों के शोषण को कमतर आंका जाता है।

अदालत ने स्पष्ट किया कि बच्चों से संबंधित अश्लील सामग्री को देखना और उसे बनाना दोनों एक ही तरह के कृत्य माने जाएंगे, क्योंकि दोनों का उद्देश्य एक ही है – बच्चे का यौन शोषण और उसके शोषण का आनंद लेना।

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हाई कोर्ट के फैसले की आलोचना

सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस निष्कर्ष की आलोचना की, जिसमें कहा गया था कि बच्चों के अश्लील कृत्यों को देखने या डाउनलोड करने को अपराध नहीं माना जा सकता, जब तक कि इसे सार्वजनिक रूप से नहीं फैलाया जाता।

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया कि पॉक्सो अधिनियम की धारा 15 के तहत इस प्रकार की सामग्री का भंडारण या कब्जा भी एक अपराध है। न्यायमूर्ति पारदीवाला ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि ‘किसी भी व्यक्ति द्वारा ऐसी सामग्री को रखना या संग्रहीत करना, भले ही उसका प्रसारण न हो, कानूनन अपराध है।’

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सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम का उपयोग

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि ‘सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम’ की धारा 67B के तहत बच्चों से संबंधित अश्लील सामग्री का प्रसारण, भंडारण, उपयोग और अन्य प्रकार की डिजिटल क्रियाएं अपराध मानी जाएंगी। इसके अलावा, अधिनियम में यह भी कहा गया है कि बच्चों को किसी भी प्रकार के यौन कृत्य या आचरण में लिप्त करने का प्रयास भी अपराध है।

कोर्ट ने कहा कि इस अधिनियम के तहत लोग अक्सर ‘लिंक’ के माध्यम से इस सामग्री को साझा करते हैं और फिर उन्हें डिलीट कर देते हैं ताकि वे कानूनी दायरे से बाहर रह सकें।

सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘सृजनात्मक कब्जा’ (Constructive Possession) का सिद्धांत बताया, जिसके तहत यदि कोई व्यक्ति किसी सामग्री को देखता है, डाउनलोड करता है, और फिर डिलीट करता है, तो भी वह उस सामग्री का कब्जा माना जाएगा और व्यक्ति को अपराधी ठहराया जाएगा।

संसद और सरकार को निर्देश

अदालत ने सरकार से आग्रह किया कि संसद को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और कानून में संशोधन करने की आवश्यकता है। जब तक यह संशोधन न हो, तब तक सरकार एक अध्यादेश जारी करे ताकि कानून में सुधार के प्रस्ताव को शीघ्र लागू किया जा सके।

सुप्रीम कोर्ट ने सभी न्यायालयों को आदेश दिया कि वे अपने निर्णयों में ‘चाइल्ड पोर्नोग्राफी’ की जगह ‘CSEAM’ का उपयोग करें, ताकि इस अपराध की गंभीरता को पूरी तरह से समझा जा सके।

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निष्कर्ष

यह फैसला देश के न्यायिक इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है। इससे न केवल बच्चों के यौन शोषण से संबंधित मामलों को गंभीरता से लिया जाएगा, बल्कि इस अपराध के पीड़ितों के मानसिक और भावनात्मक पुनर्वास के लिए भी एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया है।

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से यह स्पष्ट होता है कि बच्चों के शोषण से संबंधित किसी भी प्रकार की डिजिटल सामग्री रखना, उसे देखना या प्रसारित करना अब किसी भी सूरत में अपराध से कम नहीं माना जाएगा।

अदालत का यह फैसला बच्चों की सुरक्षा और उनके अधिकारों की रक्षा की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि भविष्य में इस प्रकार के अपराधियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो सके।

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